Monday, August 22, 2011

महान् मनोवैज्ञानिक श्री कृष्ण

ओ3म्

कहते हैं मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। इस संघर्षमय जीवन में यदि हम अपनी परिस्थितियों से हार मान लेते हैं तो जीवन में कभी भी सफल नहीं हो सकते है। हमारा जीवन एक कुरुक्षेत्र ही है। यहां अनेक विचारों में, परिस्थितियों में और व्यक्तियों में संघर्ष सा ठना रहता है ऐसे में यदि हम श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिये गये ज्ञान के प्रकाश में अपना मार्ग खोजते हैं तो बड़ी आसानी से मार्ग दिखने लगता है। आप कहेंगे यह क्या तुलना हुई।

वास्तव में कुरुक्षेत्र के मैदान में दोनों सेनाओं के मध्य खड़े अर्जुन ने जब दोनों ओर अपने ही संबंधियों को देखा, शत्रु पक्ष में पितामह और गुरु द्रोण को देखा तो वह भी तनाव में आ गया। उसका गला सूखने लगा, शरीर कांपने लगा और अर्जुन गाण्डीव छोड़ कर रथ में बैठ गया।

कठिन परिस्थितियां देख कर हम भी ऐसे ही तनाव में आ जाते हैं और हम कभी-कभी ग़लत निर्णय ले लेते हैं, जैसे अर्जुन ने कहा, मैं युद्ध करना नहीं चाहता, राज्य सुख भी नहीं चाहता। अपने ही संबंधियों को मारकर राज्य करने से अच्छा है कि मैं संन्यास ले लूं ।

अर्जुन निराशा में, उत्तेजना में और विशेष रूप से मोह में पड़ कर ऐसा कह रहा था। अर्जुन को समस्या का समाधान नहीं मिल रहा था। श्री कृष्ण ने पहले श्रोता बन कर उसकी समस्या को सुना, समझा और फिर शंकाओं को दूर करते हुए उसका समाधान प्रस्तुत किया।

अर्जुन की पहली समस्या थी कि वह अपने गुरुजनो परिजनों को मारना नहीं चाहता था। श्री कष्ण ने कहा देखो न तुम मारने वाले हो न ये मर रहे हैं। तुम्हें समझना चाहिये कि युद्ध में केवल शरीर का नाश होता है, जिसने जन्म लिया है ।इसे तुम ना भी मारो तो भी यह कुछ समय बाद नष्ट हो जायेगा। आत्मा न जन्म लेता है, न मरता है, यह तुम्हें समझ लेना चाहिये। उन्होंने कहा -

न जायते म्रियते वा कदाचिन्,
नायं भूत्वा भविता वा न भूय:
अजो नित्य: शाश्वतो Sयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे ।।

अर्थात् न आत्मा मरता है न जन्म लेता है, न यह कि अब मर कर फिर कभी यह नहीं रहेगा। यह आत्मा तो नित्य है, और बहुत प्राचीन है। आदि अंत रहित है और शरीर के मर जाने पर भी यह नहीं मरता है। लेकिन अगर अभी तुम युद्ध से विमुख हुए तो सब तुम्हें कायर समझेंगे, कहेंगे कि अर्जुन के पास सात अक्षोंहिणी सेना थी और कौरवों के पास ग्यारह अक्षोंहिणी सेना थी अर्जुन कौरवो की शक्ति देख कर भयभीत हो गया। इसके अतिरिक्त तुम बुराई को बढ़ाने वाले समझे जाओगे। अपने राजा के कर्तव्य से भी विमुख हो जाओगे। इस समय बुराई को नष्ट करना ही तुम्हारा कर्तव्य है, तुम्हारा धर्म है। युद्ध में हार गये, मारे गये तो स्वर्ग मिलेगा और जीत गए, तो पृथ्वी पर राज करोगे। अत: पूर्ण निश्चय के साथ युद्ध करो।

हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं, जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृत निश्चय:।।

आज भी हम यही बात देखते हैं कि किसी भी काम को करने के लिये पूर्ण विश्वास की आवश्यकता है। पूरे निश्चय से जी जान लगा कर जो काम हम करते हैं तो विकट परिस्थितियों में भी सफलता मिलती है। जैसे कारगिल युद्ध में हमारे वीर सैनिकों को सफलता मिली थी। आधे अधूरे मन से काम करने पर सफलता भी अधूरी ही मिलती है ।
इसके साथ ही श्री कृष्ण अर्जुन को सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय आदि की विषम परिस्थितियों में भी निर्विकार रहने की सलाह देते हैं। दुख में निराश न हो, सुख में बहुत अधिक खुश हो कर बार-बार सुख की ही कामना न करो।

दुखेष्वनुद्विग्नमना सुखेषु विगतस्पृह:
वीतरागभयक्रोध: स्थितधी: मुनिरुच्यते।।

अर्थात दुख में बहुत दुखी न रहो, सुख में अधिक सुख की इच्छा मत करो। डर और क्रोध पर नियंत्रण रखो। यही अच्छी बुद्धि वाले व्यक्ति की पहचान है। ऐसे ही लोग मुनि कहलाते हैं।

इस प्रकार श्री कृष्ण अर्जुन की अनेक शंकाओ का समाधान कर के उन्हे मनोभावों पर नियंत्रण रखने का परामर्श देते रहते थे। इससे अर्जुन का आत्मविश्वास बढ़ता था। आज भी हमारे जीवन में यह सभी बातें उतनी ही महत्वपूर्ण हैं। हमें जीवन में संतुलन बनाए रखना बहुत ज़रूरी है। खाने-पीने, सोने-जागने में, काम करने में सब जगह संतुलन की आवश्यकता है। अधिक काम कर के हम मानसिक तनाव का शिकार बन जाते हैं, अधिक खाने पीने से, मोटापे का शिकार बन जाते हैं। काम को टालने से हम आलसी बन जाते हैं। और सफलता हमसे दूर होने लगती है। ऐसी स्थिति जीवन में नहीं आनी चाहिए। श्री कृष्ण नें अर्जुन को समझाया था –

युक्ताहारविहारस्य, युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वपनावबोधस्य, योगो भवति दु:खहा।।

हम संतुलित व्यवहार करें। श्री कृष्ण कहतें हैं, संतुलित आहार हो, संतुलित घूमना फिरना हो, काम करने में भी हम संतुलन बनाएं रखें, सोनें-जागनें में भी संतुलन हो, तो हमारे दुख अवश्य दूर हो जाएंगे और हमें हमारे प्रयत्नों में सफलता मिलेगी।

जैसे हम देखते हैं कि भूख लगी हो या अधिक खाना खा लिया हो तो दोनो ही परिस्थितियों में काम ठीक नही होता। परीक्षा के दिनों में बहुत देर तक जागें तो दिन में नींद आने लगती है। दफ्तर में काम अधिक हो तो घर में भी थकान रहती है, क्रोध आता है। इसलिए जीवन में हर तरफ संतुलन बनाए रखने की आवश्यकता है। संतुलन ही सफलता की पहली सीढ़ी है।

इस प्रकार मनोवैज्ञानिक रूप से अर्जुन को सलाह देते हुए श्री कृष्ण उनका मार्गदर्शन करते थे। यही उनकी सफलता का आधार था।

By सुधा सावंत

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